शिष्यस्य भोजनं अपि तु ज्ञानः।
इन तीन अक्षरों में दुनिया सम्मिलित है, और यही तीन अक्षर पूरी दुनिया का आधार हैं, जिसे परमात्मा और आत्मन का एक अनोखा सम्बन्ध बताया गया है। इन तीन अक्षरों को यदि आप समझना चाहें, तो एक छोटे से प्रश्न का उत्तर दें, जिसे माणिक जी अपने आश्रम में पहुँच कर अपने शिष्य से पूछते हैं।
माणिक देव जी अपने आश्रम के समीप पहुँचकर देखते हैं कि उनका शिष्य अभी भी उनके कक्ष के बाहर खड़ा है। जैसे ही उसकी दृष्टि माणिक जी पर पड़ती है, वह हर्षोल्लास के साथ उन्हें लेने के लिए उनके पास आता है और आते ही अपने गुरु के चरण स्पर्श करता है। माणिक देव जी उसे आशीर्वाद देते हैं और उसके सिर पर हाथ रखकर कहते हैं, “पुत्र, मुझे बहुत खुशी है कि तुम अपने गुरु की अनुपस्थिति में अपने कर्म का पालन कर रहे हो।”
शिष्य कहता है, “गुरुवर, आपने जो दीक्षा दी है, मैं केवल उसी का पालन कर रहा था। अब आप आ गए हैं, तो आप निश्चिंत होकर अपने कक्ष में आराम करें। मैं सदैव आपके कक्ष के बाहर खड़ा होकर बस ज्ञान की प्राप्ति की प्रतीक्षा करूँगा।”
गुरु अपने शिष्य की निष्ठा देखकर खुश होते हैं और उसे लेकर अपने कक्ष में आते हैं। शिष्य ने अपने गुरु के लिए भोजन और पानी की व्यवस्था की और गुरु को भोजन परोसकर उनके समीप खड़ा हो गया। तब गुरु, दायित्व के अभाव में, अपने शिष्य से पूछते हैं, “पुत्र, तुम्हें भी भूख लगी होगी। जाओ, तुम भी भोजन कर लो।”
शिष्य अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपने गुरु से कहता है, “गुरुवर, भूख तो बहुत है, मगर यह भोजन उसकी आपूर्ति नहीं कर पाएगा।”
गुरु के चेहरे पर एक मुस्कान आती है और वे कहते हैं, “अच्छा, अगर भोजन से आपूर्ति नहीं होगी, तो क्या चाहिए तुम्हें जिससे आपूर्ति हो? जाओ, भोजन कक्ष से उसे ले लो।”
तब शिष्य अपने गुरु से कहता है, “गुरुवर, मेरा भोजन आपके पास है।”
गुरु चौंकते हैं, फिर एक मंद मुस्कान उनके चेहरे पर आती है और वे कहते हैं, “पुत्र, तुम्हारी भूख कभी समाप्त न हो, ऐसा आशीर्वाद देता हूँ। अब जाओ और अपने खाने का संयम से इंतजार करो। थोड़ी ही देर में मैं तुम्हें वह परोसूँगा, जिसके तुम भूखे हो।”
शिष्य के चेहरे पर चमक आती है और वह चला जाता है, और गुरु के भोजन समाप्त करने का इंतजार करता है।
शिष्यस्य भोजनं अपि तु ज्ञानः।
ॐ तत्सत्