।। अव्यथनं रूपंकरं मृदुलं शक्यम् ।।
। । कथा एव या सर्वत्र दानं यत्र मम अकालरूपं सृजामि । ।
।। न जानामि यथा कार्यक्षेत्रं रूपेण ।।
परोपकारी व्यक्ति कभी जीवन में सफल या असफल होने पर चिंतन नहीं करता क्योंकि उसका असली जीवन उसे स्वयं नहीं पता होता। वह जो कर रहा है, वह या तो किसी के दिए हुए को आगे बाँट रहा होता है, या किसी को देने के लिए किसी अन्य व्यक्ति का एक सार्थक रूप से सहयोगी होता है। और वह व्यक्ति, जो सबको दे रहा है, वह स्वयं भगवान श्री विष्णु नारायण हैं, जिन्होंने सबको दिया है और वे दान देने वालों में सर्वोपरि हैं, क्योंकि उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा दान दिया है, जो है जीवन। जीवनदान से बड़ा कोई दान नहीं होता। इसलिए, जो मनुष्य दान करता है, वह स्वयं भगवान विष्णु के समान है, जिन्हें भगवान विष्णु एक समय के अंतराल के बाद अपने पुत्र को सौंपकर वहां चले जाते हैं, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
इसी कल्पना को भगवान श्री विष्णु माता लक्ष्मी को बता रहे हैं। उनका एक छोटा सा संवाद आपको सचेत करेगा कि जीवन कैसे बना और कैसे इसे दान में देकर भगवान श्री विष्णु सर्वोपरी हैं।
भगवान श्री विष्णु के माथे पर स्वेद की एक बूँद ने जन्म लिया। न जाने यह बूँद वहाँ कैसे आई, क्योंकि क्षीरसागर में भगवान श्री विष्णु को पहली बार स्वेद की बूँद ने छुआ था। भगवान श्री विष्णु अपनी आँखें बंद करके ध्यान में थे जब इस बूँद का सृजन हुआ। भगवान के माथे पर बूँद तो आई, लेकिन साथ लेकर आई एक मंद मुस्कान। माता लक्ष्मी उनके पैरों के समीप बैठी थीं। जब उन्होंने इस स्वेद की बूँद को जन्म लेते देखा, तो तुरंत अपने सुंदर हाथों से उस बूँद को भगवान श्री विष्णु के माथे से हटाने का प्रयास किया। लेकिन जैसे ही माता बूँद की ओर हाथ बढ़ातीं, भगवान श्री विष्णु को आभास हुआ। उन्होंने बिना आँखें खोले ही अपने पावन मुख से कहा, “देवी!” माता चौंक उठीं, क्योंकि भगवान श्री विष्णु की आँखें बंद थीं। उन्होंने मधुर स्वर में अपने प्राणनाथ से पूछा, “भगवन, आपको कैसे प्रतीत हुआ कि मैं आपके समीप आ रही हूँ?”
भगवान मुस्कुराए और सरलता से उत्तर दिया, “देवी, आपके आने का आभास हमें तभी हो गया था, जब इस स्वेद की बूँद ने हमारे माथे पर जीवन लेने का निश्चय किया। अर्थात, जिसने निश्चय किया है, उसके आने से पहले ही उसके अंत का आभास हो गया था मुझे। इसीलिए मैंने यह अनुभूति की कि आप हमारे माथे पर किसी ऐसी चीज़ का सृजन नहीं होने देंगी। इसी कारणवश मेरे मस्तिष्क में एक नई दुनिया का सृजन हुआ है।”
माता ने फिर पूछा, “भगवन, केवल एक स्वेद की बूँद के कारण आपने एक सृष्टि को जन्म दे दिया?” भगवान ने उस बूँद को अपने माथे से हटाते हुए कहा, “देवी, इस बूँद का मेरे माथे पर आने का केवल एक ही कारण था, कि मुझे अब एक नई सृष्टि रचनी है। मैं कर्तव्य में इतना सम्मिलित हूँ कि कभी-कभी मुझे आभास दिलाने के लिए कुछ चीज़ों का सृजन होता है। जब मुझे मेरे कर्तव्य का आभास होता है, तब उस चीज़ का कर्तव्य पूरा होता है।”
माता फिर सोच में पड़ गईं और एक सवाल पूछ बैठीं, “हे भगवन, आप तो सर्वोपरी हैं, सब कुछ आपके द्वारा संचालित है। पूरे ब्रह्मांड की संरचना आपने की है, तो यह कैसे हो सकता है कि कोई चीज़ आपको आभास कराए कि आपको अपना कर्तव्य करना है?”
भगवान विष्णु ने यथार्थ एक श्लोक में माता को उत्तर दिया, जिसका यथार्थ बड़ा ही व्याकुल करने वाला है। इस यथार्थ को स्वामी श्री मनीष देव ने कुछ इस प्रकार लिखा है।
जीवन एक परिकल्पना है। इसे जीने के लिए कुछ ऐसे शास्त्र आवश्यक होते हैं, जिन्हें पाने के लिए ऋषि-मुनि तपस्या किया करते थे। एक समय, एक निर्भीक तपस्वी माणिक देव अपने आश्रम में विश्राम कर रहे थे। वह अपने शयनकक्ष में निद्रा की अवस्था में थे, जब उन्हें एक स्वप्न आया, जिसने उन्हें उनके नए अध्याय के प्रति प्रेरित किया। यह अनुभूति उनके जीवन की सबसे बड़ी अनुभूति थी, जिसने उन्हें जीवन का असली सारांश दिया।
माणिक देव अपने स्वप्न में एक शक्ति के आभास से उठकर चारों ओर देखने लगे। विस्मित होकर उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाया और उससे पूछा, “पुत्र, जब मैं निद्रा में था, क्या कोई मेरे कक्ष में आया था?” शिष्य अबोध होकर अपने गुरु को जवाब देता है, “नहीं गुरुवर, जब से आप कक्ष के भीतर आए हैं, मैं कक्ष के दरवाजे पर खड़ा था। मैंने किसी की उपस्थिति को महसूस नहीं किया।”
माणिक देव जी मुस्कुराए और अपने शिष्य से कहा, “हमारा कमंडल लेकर आओ, हमें एक खोज पर जाना है।” उनका शिष्य, अबोध बालक की तरह, एक और सवाल पूछता है, “गुरुवर, क्या मैं जान सकता हूँ कि आप किस खोज पर जा रहे हैं, और क्या मैं आपके साथ चल सकता हूँ?”
माणिक देव जी ने उत्तर दिया, “पुत्र, मैं इस खोज पर जा रहा हूँ कि इस कक्ष में, जब मैं शयन निद्रा में था, तब यहाँ कौन आया था। और रही मेरे साथ चलने की बात, तो वह अभी नहीं। पहले मैं खुद इस काबिल हो जाऊँ कि इस खोज के परिणाम का आंकलन कर सकूं। तभी मैं अपने अन्य किसी शिष्य को अपने कदमों पर चलने के लिए कह सकता हूँ, क्योंकि मैं अभी खुद आंकलन नहीं कर पा रहा हूँ कि परिणाम क्या होगा। और जब तक मैं इस आंकलन को समझ नहीं पाऊँगा, तब तक मैं किसी अन्य को इस पथ पर चलने के लिए नहीं कह सकता। तुम जाओ और मेरा कमंडल लेकर आओ।”
शिष्य अपने गुरु की बात सुनकर आदेश का पालन करता है, और माणिक देव जी अपनी खोज पर निकल जाते हैं। इस खोज में उन्हें जीवन का एक सूत्र मिला।
“ॐ तत्सत”