I Think (मैं सोचता हूँ अध्याय 4)

“दुनिया भी अजीब है। कभी समझ नहीं पायी कि क्या सही है, क्या गलत। ये बस पक्ष लेती है। कभी आपका, कभी मेरा। और इसे कुछ नहीं पता कि क्या सही है। और शायद ये देख भी नहीं पाती क्योंकि भला, किसी की शकल पे लिखा तोड़ी है गलत या सही। मगर फिर मैं यह सोचता हूँ कि अगर ये देख नहीं पाती तो नक़ल कैसे उतरेगी। क्योंकि आज हम जो कुछ भी कर रहे हैं, सब एक दूसरे की नक़ल ही तो उतार रहे हैं। अगर नहीं तो फिर ये कैसे पता चलेगा कि मैं जो कर रहा हूँ, वो नक़ल नहीं बल्कि असली है। और इसे देखने के लिए एक ही जवाब है – ऐन और इस द डिफरेंस।

कैसे ये मैं एक दिन अपने घर पर बैठे टीवी देख रहा था। अचानक से एक खबर आयी कि किसी बड़े व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में ले लिया गया है। अब ये कुछ नया तो नहीं था मगर कुछ ऐसा था जिसे मैं ढंग से देख नहीं पाया। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जो व्यक्ति न्यायिक हिरासत में गया था, वो दरअसल कई लोगों के चुनने के बाद वहाँ पंहुचा था। अब वो आदमी तो गलत है, इसमें कोई दोहराए नहीं है। मगर इतने सारे लोग गलत थे जिन्होंने उसे अपना मसीहा समझ लिया था। आखिर ये लोग अंधे थे क्या जिन्हे नहीं पता कि राजनितिक गलियारे थोड़े बदनाम हैं।”

“फिर भी उस व्यक्ति को चुना, मगर अगर मैं कहूं कि जिन्होंने उसे चुना, उन सबको उसने कुछ न कुछ फायदा दिया तो उनके लिए तो वो आदमी सही हुआ। भले ही न्याय के सामने वो गलत था। अब मैं अपनी पुरानी बात पर वापस आता हूं कि समाज देख क्यों नहीं पाता है और ये बस पक्ष लेता है। कैसे इसके लिए भी एक घटना है। एक बार मेरे बहुत ही अजीज दोस्त उनके घर पर एक मेहमान नवाजी के पर्व के लिए मुझे आमंत्रित किया गया। अब आमंत्रित तो हुआ, मगर वे भी अकेले।

अब इसमें मेरी धर्मपत्नी थोड़ी खफा हो गई। फिर भी मैं चला गया। अरे भाई, एक अजीज ने बुलाया जो थे। फिर मैं वहाँ पहुँचा और अपने दूसरे मित्रों से रूबरू हुआ। कुछ देर बाद रुक्शत होने के लिए मैं अपने दोस्त को विदा बोलने आया। और मैं आज तक समझ नहीं पाया ये उसने मुझसे क्यों कहा। उसने मुझसे पूछा, ‘अरे भाई, अगली दफा भाभी को साथ लेते हुए आना।’ मैं हाँ कह कर चल पड़ा और सोच में पड़ गया कि इस व्यक्ति ने ये अभी क्या कहा। एक और इसने मुझे अकेले बुलाया, और अब जाते हुए मुझसे बोल पडा कि ‘भाभी को साथ लाना’।

मतलब, इतना अच्छा मजाक कैसे। मैं भी हंसी में उसे उड़ाकर आगे बढ़ गया, और अब मुझे कहने में कोई भी जिजक नहीं की समाज दरअसल अंधा है। क्योंकि ऐन ऑय इस द डिफरेंस भला, के मैं कैसा समझता। आखिर मैं भी तो उसी समाज का हिस्सा हूँ। अगर यह पढ़कर आप सोच रहे हैं कि इसमें शायद कुछ रह गया है, तो फिर से पढ़िए और देखिए क्योंकि ऐन ऑय इस द डिफरेंस ही है।”

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