I Think (मैं सोचता हूँ अध्याय 3)

An Eye Is The Difference

मैं अक्सर एक सवाल अपने से बार-बार पूछता हूँ। पूरी उम्र निकाल दी, कुछ अलग हट के करने में। मेरे पिछले बॉसेस ने मुझे हमेशा एक ही बात कही है – ‘मनीष, थिंक आउट ऑफ द बॉक्स’। और मैं आज इस पर सोचता हूँ। तो मैं उनकी बात पे हस्ता हूँ।

आखिर, कैसे मैं थिंक आउट ऑफ द बॉक्स करूँ, जब की मेरी उनकी और सबकी सोच इस दुनिया जिसे हम धरती या अर्थ कहते है, उसी तक सीमित है। उन्हें कहना चाहिए था – ‘मनीष, थिंक इनसाइड फ्रॉम अ बिग्गेर बॉक्स’। मतलब, किसी बड़े डब्बे के अंदर देखो, क्या पता, सवाल मिल जाएगा। और आज मुझे यहाँ पर आकर एक परेशानी हुई। जब मैंने सोचा, की इस धरती को बनाने वाले या हम इंसानो को बनाने वाले ने कौन से बॉक्स में बैठ कर सोचा होगा। है न हैरत की बात? आखिर, वो कौन सा डब्बा है, जिसके अंदर बैठ कर हमे बनाने का आईडिया आया होगा। आज मैं उसी डब्बे के अंदर से ये सब लिख रहा हूँ, और हैरान हूँ की सब इस दिमाग की देन है।

अरे भाई, जब भगवान ने हमे बिलकुल उसकी नक़ल से बनाया है और हमे उसने दिमाग दिया होगा, तो जाहिर सी बात है, उसमे भी दिमाग रहा होगा, जिसके जोर पर आज हम बने है। और सो ‘कॉल्ड थिंक आउट ऑफ द बॉक्स’ कर रहे हैं।” “अब जब दिमाग उसी की नकल का है, सब कुछ उसी की नकल का है, तो हमारे मन में इतना छल पाप कैसे? और मैं ये बिल्कुल नहीं कह सकता कि उस ऊपरवाले के दिमाग में कभी छल रहा होगा होता। तो आज हम सब उसके गुलाम होते, वो हम पे हुकुमत करता और हमारी बलि देता अपने सुकून के लिए। मगर ऐसा नहीं है, उसने हमें अपने बच्चों की तरह रखा है, तो ऐसी पाक साफ मूरत हमारे ईश्वर के बच्चे यानी हम इतने नापाक कैसे हो गए?

तो बात यही है, उसने हमें देखने के लिए आँखें जो दे दीं वाह रे मालिक, आज उन आँखों से हम सब देखते तो हैं मगर किस लिए दी है हमें ये आँखें? गलत देख कर उसे सह देने के लिए और फिर बाद में वैसा ही कुछ गलत करने के लिए। वाह रे मालिक, क्या खूब तरीक़ा है ये हुई ना कुछ आउट ऑफ द बॉक्स वाली बात। अब आप सोचेंगे कि ये भला दूसरी करवट भी तो हो सकती है सही देख कर सही होने देने के लिए और बाद में कुछ सही करने के लिए हमें आँखें दी हो। अगर ऐसा है तो आप ने कितना सही किया है?

अगर किया है तो एक सवाल का जवाब दीजिए: क्या एन और ऐस द डिफ़रेंस है, या सिर्फ एन और ऐस ही डिफ़रेंस है? गौर कीजिए।”

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