I Think, (मैं सोचता हूँ अध्याय 2)

An Eye is the difference Chapter 2

“क्या है डिफरेंस? इसे कैसे देखा जाए? जरा जोर डालिये। सबके पास एक जैसी ही आँखें हैं, बस फरक ये है कि किसी की कमजोर है और किसी की पूरी है। मगर दरअसल, हम सब की नज़रें कमजोर हैं, इतनी कमजोर कि हम अंधे हो रखे हैं। ये एक बहुत बड़ा सत्य है और इसी सत्य का नाम है ‘ऐन ऑय इस द डिफरेंस’। दरअसल, क्या है ये ‘डिफरेंस’? आखिर हम सब, इस ‘डिफरेंस’ को अपना कर सबसे अलग बनना चाहते हैं। एक रोज, मैं एक महफ़िल में बैठा हुआ था। अब जब बात महफ़िल की थी, तो बातें चल रही थीं। कभी किसी की टांग खींची जा रही थी, कभी दूसरे की। फिर न जाने, बात पढ़ाई पर आकर ठहर गयी। तो मेरे एक बहुत अच्छे मित्र जो आई आई टी मद्रास के पढ़े हुए एक इंजीनियर हैं, उन्होंने फ़रमाया कि पढ़ाई कुछ नहीं, एक टूल है पैसा कमाने का, और कुछ नहीं। हम पढ़ तो रहे हैं, बस पैसे कमाने के लिए। आज आप किसी से पूछ लो कि आप को पढ़ के क्या बनना है, उसका सीधा जवाब होता है, ‘भाई, बस पढ़ के इतना पैसा कामना है कि अपने माँ-बाप के हर सपने को पूरा कर सकूँ’। दरअसल, बात भी सही है।”

“माँ-बाप के सपने पूरा करना अच्छी बात है। यही मैंने उनसे पुछा तो उन्होंने कहा, ‘ये आज की जनरेशन है। माँ-बाप को बेच देगी दो रुपये के लिए। और माँ-बाप के सपनों के पीछे हैं इनकी अपनी छुपी हुई ख्वाइशें।’ मैंने पुछा, ‘वो कैसे?’ तो उन्होंने एक सरल सा सवाल पुछा, ‘आपके पिताजी आप से क्या चाहते हैं?’ मैंने कहा, ‘भाई मेरे, पिताजी एक फौजी थे और उन्होंने मुझे हमेशा एक अच्छा इंसान बनने के लिए बोला है। यही उनकी मुझसे दरख्वास्त थी।’ फिर उन्होंने फ़रमाया, ‘मेरे मित्र, आप बेशक एक अच्छे आदमी हैं। इसीलिए हम यहाँ बैठे हैं। मगर क्या एक अच्छा आदमी अपने ही छोटे भाई का हक़ मारता है? क्या एक अच्छा आदमी ऊपर सीढ़ी पर चढ़ने के लिए दूसरों को खींचता है? और अगर आप ये नहीं करते तो आप बेशक अच्छे हैं।’ मैंने कहा, ‘भाई साहिब, मैंने ये दोनों काम नहीं किये। मगर मैं एक अच्छा आदमी नहीं हूँ।’ उन्होंने पुछा, ‘ऐसा क्यों?’ मैंने फ़रमाया, ‘मोहतरम, अच्छा आदमी नहीं होता, अच्छी नीयत होती है। जो आदमी अपना फायदा चाहे, वो हर वक़्त गलत तो नहीं हो सकता।'”

“अब, अगर आप आदमी को अच्छा बोलेंगे तो वह कभी हो नहीं सकता। इंसान हमेशा से एक जैसा रहा है, बेवकूफ हमारे और आपकी तरह। और इंसान कुछ है तो हमने उसे बाँट लिया है। वह बोले, ‘कैसे?’ मैंने कहा, ‘इंसान बाँटा हुआ है, रंग, धर्म, देश, जाती और न जाने क्या।’ और यह किसी ने बाँटा नहीं, इंसानों ने खुद को ही बाँट लिया। कुछ कहते हैं ‘मैं गोरा’, कुछ कहते हैं ‘मैं ये’, ‘मैं वो’, ‘अरे भाई, मैं इंसान हूँ, मुझे इंसान ही रहने दो, न मैं अच्छा हूँ, न बुरा। क्योंकि अगर मैं एक लिए अच्छा हूँ, तो दूसरे के लिए बुरा भी तो मैं ही हूँ।’ वे फिर पूछ बैठे, ‘कैसे?’ मैंने जवाब दिया, ‘चलिए, आप मेरे मित्र हैं, आपके यहाँ दावत पर चलते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘अरे, इसमें कैसी बात।’ अभी चलिए, मैंने फिर पूछा, ‘एक बार अपनी धर्म पत्नी से पूछ लीजिये, इतनी देर रात वह हमारे लिए खाना बना सकती है? और फिर इस होटल के मालिक से पूछ लीजिये कि क्या हम अपने घर जाकर अपनी धर्म पत्नी के हाथ का खाना खा सकते हैं?'”

“तब हमारे मित्र जोर-जोर से हसने लगे और कह पड़े, ‘यार, मनीष, ये क्या अजीब इत्तेफाक है, मैं ही सही और मैं ही गलत, ये कैसी विडम्बना है?’ और मैंने एक छोटा सा उत्तर दिया, ‘ऐन ऑय इस द डिफरेंस।’ वो चौक के बोले, ‘अरे भाई, ये क्या डिफरेंस है?’ मैंने फिर जवाब दिया, ‘मोहदय, ऐन ऑय इस द रियल डिफरेंस।'”

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