गौरव पुराण सप्त श्लोकस्य महात्म्य

नास्मि विस्मृतः, भवाञ् न जानाति समयस्य।

गौरव पुराण सप्त श्लोकस्य

भगवान् श्री हरी विष्णु क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित हो जाते हैं। फिर एक मुस्कान के साथ कहते हैं, “देवी, आप धन्य हैं जो आपने इस समय के असली रूप को मुझे दिखा दिया।” देवी थोड़ा आश्चर्य के साथ कहती हैं, “हे देव, मैंने ऐसा क्या कह दिया जिससे आपको समय का असली रूप मालूम पड़ गया?” भगवान् श्री हरी विष्णु कहते हैं,

“नास्मि विस्मृतः, भवाञ् न जानाति समयस्य।”

देवी, जिसने मुझे जानता था और मुझे आभास था, मगर ये शायद समय की एक अवस्था है। उसने हमें भलीभांति इसका स्वरूप भी दिखाया है और हमने देख भी है, मगर जानकर भी हम इसे जान नहीं पाते। यही परिभाषा है समय की।

देवी आश्चर्यचकित होकर पूछती हैं, “देव, मैं समझी नहीं। ऐसा क्या है जैसे जानकर भी हम अनजान हैं?” भगवान् श्री हरी विष्णु कहते हैं,

“देवी, हम जानकर भी अनजान नहीं हैं। हम जानते हैं, मगर हम नहीं जानते कि ये जो समय है, उसका असली स्वरूप क्या है।”

देवी फिर पूछती हैं, “मैं समझी नहीं, देव। इसका क्या अंतर है? जिसे मैं जानकर भी अनजान हूँ, और जिसे मैं जानती हूँ मगर माँ नहीं जानती? ये तो कोई संदर्भ नहीं जिसे मेरे परिपेक्ष में देव कहते हैं।”

“हे देवी, जो समाज में आए तो समय तो है, मगर समय सबकी समाज से बाहर है। देवी, हस्ती है। देव, आपको ये क्या हुआ है? आप जो समझाना चाहते हैं, वो मैं समझ नहीं पा रही हूँ।”

देव भी मुस्कुराते हैं और कहते हैं, “देवी, समय कुछ समझाना चाहता है, मगर हम नहीं समझते। यही है परिभाषा, जिसे हम जानकर भी नहीं जानते।” देवी कहती हैं, “प्रभु, आपकी माया निराली है।” देव मुस्कुराते हैं और कहते हैं, “देवी, इसका जवाब देने के लिए मैं आपको माणिक देव की यात्रा का व्याख्यान देता हूँ, मगर उससे पहले इस श्लोक को आप समझने की कोशिश कीजिए।

एवं न जानामि समयस्य

गौरव पुराण

देवी पूछती हैं, “देव, इसका क्या मतलब है कि समय का पता ही नहीं चला?” देव जवाब देते हैं, “यही तो असली प्राय है समय का, इसका पता ही नहीं चला। अब मैं आपको माणिक देव की उस यात्रा का व्याख्यान सुनाता हूँ, जहाँ उनको इसका उत्तर मिला।”


ॐ तत्सत्

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