“गौरव पुराण” षष्ठ श्लोक महात्म्य

||मम सर्वश्रेष्ठस्य भोजनं||

||भोजनं मम आधारं||

||आधारं मम ग्यानः||

||ग्यानः उपार्जितो अस्मि गुरुं||

||गुरुं मम सर्वोच स्थानं||

“गौरव पुराण” षष्ठ श्लोक

महात्म्य

माता लक्ष्मी जब भगवान नारायण की आंखों में देखती हैं, तो माता उनसे पूछती हैं, “हे भगवन, आपकी आँखों में ये अश्रु क्यों हैं? ऐसा क्या है जिसे केवल आपने समझा और इतने भावुक हो गए? प्रतीत होता है कि आप किसी को बहुत याद कर रहे हैं, क्योंकि सृष्टि के जन्म से लेकर अब तक मैंने आपकी आँखों में अश्रु नहीं देखे थे। ऐसा क्या है भगवन? मुझे भी बताइये।”

भगवान कहते हैं, “देवी, ये अश्रु नहीं हैं; ये मेरे आने वाले कर्तव्य की पुकार है।” देवी कुछ समझ नहीं पातीं, और जैसे ही वे दो अश्रु भगवान नारायण की आँखों से बाहर आते हैं, वे दो मनुष्यों का रूप धारण कर लेते हैं। क्षण भर में अपने अस्तित्व में आकर, भगवान विष्णु नारायण की दोनों भुजाओं के समीप आकर उन्हें नमन करते हैं। देवी आश्चर्य में भगवान के सामने एक प्रश्न प्रस्तुत करती हैं और पूछती हैं, “हे भगवन, ये दो मनुष्य कौन हैं?”

तभी भगवान विष्णु नारायण देवी को उत्तर देते हैं और कहते हैं, “हे देवी, ये दोनों मेरे पुत्र हैं। एक है मन और एक है बुद्धि, और अब से ये दोनों मेरी बनाई हुई सृष्टि को कर्म के लिए तैयार करेंगे।” देवी फिर से एक और प्रश्न प्रस्तुत करती हैं, “हे भगवन, ये कर्म क्या है?” भगवान विष्णु नारायण उत्तर देते हैं:

“अहं शक्यं किं वदामि?”

“गौरव पुराण”

माता मंद-मंद मुस्कुराती हैं और कहती हैं, “हे देव, आपने बहुत कुछ कह दिया है। अब मैं आपको एक छोटी सी घटना सुनाती हूँ, जिसे मैं आपके उत्तर के पश्चात समझ पाई। किन्तु यह पराकाष्ठा है कि यह आपके सामने मेरी एक छोटी सी विनती है, जिसे आपको स्वीकार करना ही पड़ेगा।” भगवान श्री हरि विष्णु मुस्कुराते हुए कहते हैं, “जैसा आपको सही लगे, देवी।” और देवी अपनी उस घटना का विवरण सुनाती हैं।

समय एक चक्र के समान है, जो सदैव चलता आ रहा है, और यह चक्र एक जगह पर स्थित है, मानो जैसे एक बिंदु जिस पर इसकी आधारशिला है। अब अगर यह चक्र समय का है, तो इसके केंद्र पर कौन है जो समय का आधार है? यह मेरा प्रश्न है, और इसका मुझे उत्तर चाहिए। घटना यह है कि एक समय था जब एक स्त्री एक बालिका होती है। वह अपने पिता के अधीन होती है। फिर उसका विवाह होता है, और फिर वह अपने पति के अधीन होती है। इसी प्रकार, फिर वह अपने बच्चों के अधीन होती है। यह एक चक्र है जिसमें हर स्त्री अपना जीवन व्यतीत करती है, और यह समय की माँग है कि स्त्री बड़ी होकर वैकुंठ सिधार जाएगी।

मगर यह जो समय की घटना है, यह हर स्त्री के साथ होती है। लेकिन यह जो हमारी भूमि है, जो हमारी माता है, उसके साथ इतना अन्याय क्यों? अगर ऐसा है, तो मातृभूमि, जो कि एक स्त्री है, उसका भाग्य ऐसा क्यों है? और अगर समय सबके लिए समान है, तो मातृभूमि के साथ ऐसा अन्याय क्यों? अगर यह अन्याय समय ने नहीं किया, तो शायद उस आधारशिला या केंद्र ने किया है, क्योंकि आप, जो इस समय के जनक हैं, इतने प्रेम करते हैं इस धरती से कि आप यह नहीं कर सकते। तो यह किसने किया है?

ॐ तत्सत्

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