।। यजः भूम्याः सहस्रतीर्थानां परमं तीर्थं मम जीवनस्य ।।
“वीरभद्र जब भगवान शिव के साथ द्वंद कर रहे थे, तब समीप दो हंसों का एक जोड़ा बैठा हुआ था और दोनों आपस में वार्तालाप कर रहे थे। हंसिनी हंस से पूछती है, ‘यह कैसी विडंबना है कि एक ही शक्ति के दो स्वरूप आमने-सामने हैं, और दोनों ऐसे प्रतिद्वंद्वी हैं कि यदि वे मिल जाएं, तो पूरे संसार को पल भर में नष्ट कर सकते हैं। लेकिन यह विधाता की माया है कि वे इस समय प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं।’
हंस हंसता है और अपने जवाब में एक कहानी सुनाता है। वह कहता है, ‘देखो प्रिये, संसार में जीना बहुत कठिन है। यह जो हमारे समक्ष भगवान शिव अपने ही एक रूप से द्वंद कर रहे हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों में से किसी को जीतना है। अर्थ यह है कि जो भी जीतेगा, जीत तो उस शक्ति की होगी जो उनके भीतर है। मगर यह द्वंद इस बात का नहीं है कि कौन जीतेगा या कौन हारेगा, बल्कि यह एक मानसिक द्वंद है।’
हंसिनी बोली, ‘मानसिक? मैं कुछ समझी नहीं।’
हंस ने जवाब दिया, ‘मानसिक द्वंद यह नहीं है कि चयन कैसे किया जाए या कैसे समझा जाए कि क्या सही है और क्या गलत। आंतरिक द्वंद या मानसिक द्वंद यह है कि आप खुद को कितना समझते हैं। यह द्वंद भगवान शिव और उनके एक रूप का है। भगवान शिव खुद हम में विराजमान हैं, और वीरभद्र हमारा ही स्वरूप है। जिससे जीतने के बाद संसार रूपी शरीर में शांति आ जाएगी, और इस शांति को मृत्यु कहा जा सकता है। क्योंकि यह जो द्वंद चल रहा है, वह तभी समाप्त होगा जब एक का अंत होगा। अब सवाल यह है कि जीतता कौन है—हमारे भीतर विराजमान भगवान शिव या उनका रूप वीरभद्र? जो भी जीतेगा, अंत में शांति ही होगी, और इस शांति को मृत्यु कहना उचित रहेगा।’
हंसिनी एक क्षण के लिए सोच में पड़ गई और जैसे ही भगवान शिव पीछे हटकर वीरभद्र पर प्रहार करने के लिए आगे बढ़े, हंसिनी दोबारा हंस से पूछती है, ‘यह भला कैसा द्वंद है? जब दोनों एक ही शक्ति के दो स्वरूप हैं, तो फिर यह युद्ध किस बात का है? क्या भगवान शिव वीरभद्र को समझा नहीं सकते कि उन्हें अब रुक जाना चाहिए?’
हंस हंसता है और कहता है, ‘देखो प्रिये, यह द्वंद बहुत अनोखा है, क्योंकि यह कोई साधारण द्वंद नहीं है। संसार में जो कुछ भी होता है, वह न हमारे हाथ में है और न ही भगवान के। यह संसार की एक प्रक्रिया है, अर्थात भगवान इस संसार को चला रहे हैं। जब उन्होंने इसे बनाया होगा, तब परिस्थितियाँ कुछ और रही होंगी, और अब कुछ और हैं। हर चीज़ एक प्रक्रिया का हिस्सा है। यदि यह प्रक्रिया पूरी नहीं की जाती या टाल दी जाती, तो अनर्थ हो सकता है।’
हंसिनी फिर बिना किसी रुकावट के पूछती है, ‘यदि संसार भगवान ने बनाया है, तो समय भी उन्होंने ही बनाया होगा। किस समय क्या करना है, यह भी उन्होंने ही सुनिश्चित किया होगा। तो फिर इस सब की क्या आवश्यकता है? क्या भगवान सब कुछ स्वयं ठीक नहीं कर सकते?’
हंस फिर जवाब देता है, ‘देखो प्रिये, यदि भगवान सब कुछ ठीक कर देंगे, तो जीवन का क्या अर्थ रहेगा? जब भगवान ने जीवन दिया है, तो यह उनका दान है। और दान की हुई चीज़ पर दान करने वाले का अधिकार नहीं रह जाता। अगर ऐसा होता, तो हमारे समक्ष स्वयं भगवान शिव और वीरभद्र द्वंद नहीं कर रहे होते। यदि भगवान को सब कुछ ठीक करना होता, तो सबसे पहले वे हमें दोनों को एक सुरक्षित स्थान पर भेज देते।
“मगर हमें मिला हुआ जीवन, जो कि हमारे अंदर है, उसने हमें यहां रहने के लिए कहा। तुम और मैं अभी भी यहीं हैं, यह जानते हुए भी कि हमारे समक्ष संसार का सबसे भयंकर द्वंद चल रहा है। अब अगर भगवान के हाथ में जीवन को चलाना होता, तो क्या तुम और मैं यहाँ होते?”
हंसिनी ने दोबारा पूछा, “अगर ऐसा है, तो मैं भी तुम्हारे साथ द्वंद करना चाहती हूँ, क्योंकि जीवन तो हमारे हाथों में है, और हम भी भगवान की तरह समय की मांग को पूरा कर सकते हैं।”
हंस हंसिनी की मूर्खता पर हँसा और कहा…
।। वदने किं करिष्यसि मूर्खाणां जीवनम् ।।
ॐ तत्सत