गौरव पुराण चतुर्थ श्लोक महात्म्य

। । न अहं त्वं ।।

समय की परिकल्पना हेतु भगवान विष्णु नारायण ने माता लक्ष्मी को एक छोटी सी कथा सुनाई, जिसे इस श्लोक के द्वारा समझा जा सकता है और इसके साथ इसका महात्म्य भी नीचे दिया गया है।

ऋषि माणिक अपनी यात्रा पर एक गाँव में जा कर ठहरे और रात को गाँव के शिवालय में जाकर वहाँ के पंडित से बात करके अपने ठहरने की व्यवस्था की। रात में जब माणिक देव गहरी निद्रा में थे, तो उन्हें फिर एक स्वप्न आया और वे खड़े होकर अपने आस-पास देखने लगे। उन्हें फिर से वहाँ किसी की उपस्थिति का आभास हुआ। अपने शयन कक्ष से बाहर निकल कर उन्होंने चारों ओर देखा, और फिर उन्हें अपने शिष्य की याद आई, जिससे उन्होंने किसी की उपस्थिति का आभास होने पर एक सवाल पूछा था कि कोई उनके कक्ष में आया था जब वे निद्रा में थे।

जब उन्होंने यह सोचा तो उनके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई, और तुरंत उन्होंने अपना कक्ष खाली किया और अर्ध रात्रि में अपने आश्रम लौटने का निर्णय किया। यह सुनकर देवी लक्ष्मी भगवान से पूछ बैठीं, “हे देव, ऐसा क्या पता चला माणिक देव को जो उन्होंने अपनी खोज को रोक कर वापिस अपने आश्रम जाने का मन बना लिया?” भगवान एक बार फिर मुस्कुराए और उन्होंने एक छोटे से श्लोक में माणिक देव की खोज को एक आधार दिया।

। । न अहं त्वं ।।

ॐ तत्सत्

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